कुछ शर्माती कुछ सकुचाती
आती बाहर जब वो नहाकर
मन ही मन कुछ कहती
उलझे बालों को सुलझाकर
पट-पट-पट,झटक-झटककर
बूंदें गिरतीं बालों से पल-पल
दिखतीं ये मोती सी मुझको
या ज्यों झरता झरने का जल
तिरछी नजर घुमाती वो
अधरों पर मदिर मुस्कान लिए
कभी एकटक निहारती
पलकों को जैसे आराम दिए
हँसमुख चेहरा लुभाता उसका
सूरत दिखती भली-भली
कभी लगती खिली फूल सी
कभी दिखती कच्ची कली
महकता उपवन यौवन उसका
नाजुक डली सुमधुर मिश्री
वो वसंत की चितचोर डाली
मैं पतझड़ सी बिखरी बिखरी!
.......कविता रावत
आती बाहर जब वो नहाकर
उलझे बालों को सुलझाकर
पट-पट-पट,झटक-झटककर
बूंदें गिरतीं बालों से पल-पल
दिखतीं ये मोती सी मुझको
या ज्यों झरता झरने का जल
तिरछी नजर घुमाती वो
अधरों पर मदिर मुस्कान लिए
कभी एकटक निहारती
पलकों को जैसे आराम दिए
हँसमुख चेहरा लुभाता उसका
सूरत दिखती भली-भली
कभी लगती खिली फूल सी
कभी दिखती कच्ची कली
महकता उपवन यौवन उसका
नाजुक डली सुमधुर मिश्री
वो वसंत की चितचोर डाली
मैं पतझड़ सी बिखरी बिखरी!
.......कविता रावत